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चार राजा
सविता सूर्यकी सृष्टि दिव्य उषाके पुन: पुन: उदयोंसे आरंभ होती है और हमारे अंदर पूषा सूर्यके कार्यके द्वारा उषाकी आध्यात्मिक देनों और संपदाओंके सतत पोषणसे वह अभिवर्धित होती है । परंतु वास्तविक रचना, सर्वागीण पूर्णता सब देवों (विश्वेदेवा:) के, अदितिके पुत्रोंके, विशेषकर चार महान् प्रकाशमय राजाओं--वरुण, मित्र, भग, अर्यमाके हमारे अंदर जन्म और विकासपर निर्भर: करती है । इन्द्र, मरुत् और ऋभु, वायु, अग्नि, सोम तथा अश्विन् वस्तुतः प्रधान कार्यकर्ता है । विष्णु, रुद्र, ब्रह्मणस्पति, भावि-लक्ष्यभूत शक्तिशाली त्रिदेव विकासकी अनिवार्य अवस्थाओंपर शासन करते हैं,-क्योंकि उनमेंसे एक अपने चरणपातसे उन अंतर्लोकोंके विशाल ढाँचेका निर्माण करता है जिनमें हमारे आत्माकी क्रिया घटित होती है, दूसरा अपने मन्यु व बल और रौद्र दयाशीलताके द्वारा महान् विकासको बलपूर्वक आगे वढ़ाता तथा विरोधी एवं विद्रोही और अनिष्टकर्तापर प्रहार करता है, और तीसरा सदा ही आत्माकी गहराइयोंसे सर्जक शब्दका बीज प्रदान करता है । इसी प्रकार पृथ्वी और द्युलोक, दिव्य जलधाराएँ, महान् देवियाँ और पदार्थोंको आकार देनेवाला त्वष्टा जिसकी वें देवियाँ सेवा करती हैं--ये सब या तो विकासका क्षेत्र प्रदान करते हैं या उसकी सामग्री लाते एवं बनाते है; परन्तु संपूर्ण सर्जनपर, उसके सर्वागपूर्ण विशाल व्योमपर, शुद्ध
१४६ ताने-बानेपर, उसके सोपानोंके मधुर और व्यवस्थित सामंजस्यपर, उसकी परिपूर्तिके प्रदीप्त बल एवं सामर्थ्यपर, और उसके समृद्ध, पवित्र और प्रचुर आनंदोपभोग एवं हर्षोल्लासपर सौर देव वरुण, मित्र, अर्यमा और भग अपनी दिव्य दृष्टिकी महिमा और सुरक्षाकी छत्रच्छाया रखते हैं ।
वे पवित्र कविताएँ जिनमें सब देवों (विश्वेदेवा:), अनंतसत्ताके पुत्रों-- आदित्यों तथा अर्यमा, मित्र और वरुणकी स्तुतिकी गई है,--जो यज्ञमें औपचारिक आवाह्नके सूक्तमात्र नहीं हैं,-उन अति-सुन्दर, पावक और गंभीर कविताओंमेंसे हैं जिन्हें मनुष्यकी कल्पनाशक्तिने आविष्कृत किया है । आदित्योंका वर्णन अनुपम गरिमा और उदात्तताके सूत्रोंमे किया गया है । ये मेघ, सूर्य और वृष्टिधाराके पौराणिक बर्बर देवता नहीं हैं, नाहीं आश्चर्य-चकित जंगली लोगोंके अस्तव्यस्त अलंकार हैं, अपितु उन मनुष्योंकी पूजाके पात्र हैं जो आंतरिक रूपसे हमारी अपेक्षा कहीं अघिक सुसभ्य और आत्म-ज्ञानमें कही अधिक गहरे पहुँचे हुए थे । संभव है उन्होंने अपने रथोंके साथ विजलीको न जोता हो, नाहीं सूर्य तथा तारेको तोला हो और न प्रकृतिकी सभी विनाशक शक्तियोंको जनसंहार और आधिपत्यमें उनकी सहा-यता पानेके लिये मूर्तरूप दिया हो, परंतु उन्होंने हमारे अंदरके सभी द्युलोकों और पृथ्वियोंको माप लिया था और उनकी थाह पा ली थीं । उन्होंनें अपना लंबसीस निश्चेतन, अवचेतन तथा अतिचेतनके अंदर डाला था । उन्होंने मृत्युकी पहेलीका अध्ययन किया था और अमरताका रहस्य ढूँढ़ लिया था तथा एकमेव भगवान्को खोजा और पा लिया था और उसकी ज्योति व पवित्रता और प्रज्ञा व शक्तिकी महिमाओंमे उसे जान लिया था और उसकी पूजा की थी । ये थे उनके देव, जो उतनी ही महान् और गहन परिकल्पनाओंके मूर्त्तरूप थे जितनी महान् परिकल्पनाओंने कभी मिस्र-निवासियोंके गूढ़ सिद्धान्तोंको अनुप्राणित किया था अथवा जिन्होंने पुराने आदिकालीन यूनानके उन मनुष्योंको अंत:प्रेरित किया था जो ज्ञानके पिता थे, जिन्होंने ओरफियस (Orpheus) की रहस्यमय रीति-रस्मोंको या एलियूसिस (Eieusis) की गुप्त दीक्षाको स्थापित किया था । परंतु इस सबके ऊपरं थी एक ''आर्य-ज्योति'',1 एक विश्वास एवं हर्ष और देवोंके साथ एक सुखद समस्तरीय मित्रता जिसे आर्य अपने साथ जगत्में लाया था । वह ज्योति उन अंधकारमय छायाओंसे मुक्त थी जो प्राचीनतर जातियोंके साथ, गंभीर-विचारमग्न ____________ 1. प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत् स्वर्मनवे ज्योतिरार्यम् । ऋ. 10.43.4 १४७ पृथ्वीमाताके पुत्रोंके साथ संपर्क होनेसे मिस्रदेशपर पड़ी थीं । इन जातियोंका दावा था कि द्युलोक उनका पिता है और इनके ऋषियोंने हमारे भौतिक अधकारमेंसे उस द्युलोकके सूर्यको उन्मुक्त किया था ।
आर्य-विचारवालोंका लक्ष्य हैं स्वयंप्रकाश एकमेव; इसलिये ऋषियोंने उसकी पूजा सूर्यके रूपमें की । उस 'एकं सत्'को ऋषियोंने विविध नामोंसे पुकारा है--इन्द्र, अग्नि, वायु, मातरिश्वा । उस सर्वोच्च देवके सम्बन्धमें और यहाँ उसके कार्योंकी प्रतिमूर्ति अर्थात् सूर्यके सम्बन्धमें वेदमें ''वह एक'', ''वह सत्य''' ये पद निरंतर आते है । एक उदात्त तथा रहस्यमय स्तोत्रमें यह टेक बार-बार दोहराई गई है, ''देवोंकी बृहत् शक्तिशालिता,-वह एक'' (ऋ.111.55.1)2 । वहीं है सत्यके पथसे सूर्यकी उस यात्राका लक्ष्य जो, हम देख चुके हैं कि, जागृत और ज्ञानप्रदीप्त आत्माकी यात्रा भी है । ''तुम्हारा'', मित्र और वरुणका ''वह सत्य इस सत्यसे छिपा हुआ है, जहाँ (उस सत्यमें) वें सूर्यके घोड़े खोल देते हैं । वहाँ दस सौ रश्मियाँ इकट्ठी मिलती हैं,-मैंने उस एकमेवको, मूर्तिमान् देवोंके परमदेवको देख लिया है'' (ऋ. V.62.1)3 ।
परन्तु अपने आपमें वह एकमेव कालातीत है और हमारा मन और मानव सत्ता कालमें अस्तित्व रखते हैं । ''वह न आज है न कल, उसे कौन जानता है जो परात्पर है, जब उसके पास पहुँचते हैं तो वह हमसे तिरोहित हो जाता है'' (ऋ. 1.170.1)4 ।
इसलिये अपनेमें देवोंको जन्म देते हुए, उनके बलशाली और भास्वर रूपोंका संवर्धन करते हुए, उनके दिव्य शरीरोंका निर्माण करते हुरए5 हमें उस एककी ओर विकसित होना है और यह नव-जन्म और आत्मनिर्माण यज्ञका सच्चा स्वरूप है, यह यज्ञ एक ऐसा यज्ञ है जिसके द्वारा हमारी चेतनाका अमरता6की ओर जागरण होता है । ______________ 1. 'तद् एक, तत् सत्यम्' ये दो ऐसे वाक्यांश है जिनकी व्याख्याकारोंने सदैव सतर्क रूपसे अशुद्ध व्याख्या की है । 2.... .महद् देवानामसुरत्वमेकूम् ।। ॠ. 111.5.1 3. ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूयस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान् । दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठ वपुषामपश्यम् २ । ऋ. V.62.1 4.न नूनमस्ति नो श्व: कस्तद वेद यदद्भुतम । अन्यस्य चित्तमभि संचरेण्यमुताधीतं वि नश्यीते । । ऋ. 1.170.1 5.देवबीति, देवताति । 6. अमृतस्य चेतनम् । ऋ. 1.170.4 १४८ अनंतके पुत्रोंका जन्म दो प्रकारका होता है । ऊपर तो उनका जन्म भागवत सत्यमें लोकोंके स्रष्टाओं और दिव्य विधानके संरक्षकोंके रूपमें होता है । और दूसरे वे यहां भी, स्वयं इस लोकमें तथा मनुष्यमें, भगवान्की वैश्व और मानवी शक्तियोंके रूपमें उत्पन्न होते है । इस दृश्य जगत्में वे विश्वकी पुल्लिङ्गी और स्त्रीलिङ्गी शक्तियाँ एवं ऊर्जाएं (नृ और ग्ना) हैं और सूर्य, अग्नि, वायु, जल, पृथिवी और व्योमके देवोंके रूपमें, जड़-प्राकृतिक सत्तामें सदा विद्यमान चेतन शक्तियोंके रूपमें उनका यह बाहरी पहलू हमें आर्यपूजाका बाह्य या चैत्य-भौतिक पक्ष प्रदान करता है । जगत्-के विषयमें यह प्राक्कालीन विचार कि वह केवल जड़प्राकृतिक सद्वस्तु ही नहीं अपितु चैत्य-भौतिक सद्-वस्तु है, मंत्रके प्रभाव और मनुष्यके बाह्य जीवनके साथ देवोंके सम्बन्धके विषयमें प्राचीत विचारोंके मूलमें है । इस-लिये प्रार्थना और पूजामें और भौतिक फलोंके लिए यज्ञके अनुष्ठानमें शक्ति मानी जाती है; इसी कारण सांसारिक जीवनके लिए और तथाकथित जादू-टोनेमें इनका उपयोग किया जाता है जो अथर्ववेदमें प्रमुख रूपसे प्रकाशमें आया है और ब्राह्मणग्रन्थोंके प्रतीकवादके अधिकांशके पीछे भी कार्य कर रहा है ।1 परन्तु स्वयं मनुष्यमें देवता सचेतन मनोवैज्ञानिक शक्तियाँ हैं । ''संकल्प-की शक्तियाँ होते हुए वे संकल्पके कार्य करते है; वे हमारे हृदयोंमें चितन-रूप हैं; वे आनंदके अधिपति है जो आनंद लेते है; वें विचारकी सब दिशाओं-में यात्रा करते हैं ।', उनके बिना मनुष्यकी आत्मा न अपने दाएँ और बाएँ-में भेद कर सकती है, न अपने आगे और पीछेमें और नाहीं मूर्खतापूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण बातोंमें । उनसे परिचालित होकर ही यह ''अभय ज्योति'' तक पहुंच सकती और उसका रसास्वादन कर सकतीं है ।2 इसी कारण उषाको यों सम्बोधित किया गया है--''हे तू जो मानवी और दिव्य है'', और देवोंका वर्णन निरंतर उन्हें ''मानुष'' या मानवीय शक्तियाँ (मानुषा:, नरा) कहकर किया गया है । वे है हमारे ''प्रकाशमय द्रष्टा'', ''हमारे वीर'', ''हमारे वाजपति'' (प्रचुर ऐश्वर्य और बलके पति) । वे अपनी मानवीय सत्ताकी हैसियतसे (मनुष्वत्) यज्ञको संचालित करते हैं । ______________ 1. वेदके बाह्य अर्थका असली रहस्य यही है । आधुनिक विद्वानोंने केवल इसी अर्थको देखा है और इसे भी अत्यन्त अधूरे रूपम समझा है । बाह्याचारी धर्म भी निरी प्रकृतिपूजासे अधिक कुछ था । 2. न दक्षिणा विचिकिते न सव्या न प्राचीनमादित्या नोत पश्चा । पाक्या चिद् वसवो धीर्या चिद् युष्मानीतो अभयं ज्योतिरश्याम् ।। ऋ. 11.27.11 १४९ और अपनी उच्च दिव्य सत्तामें उसे ग्रहण करते हैं । अग्नि हमारी आहुति का वाहक पुरोहित है और बृहस्पति शब्दका । इस भावमें अग्निको मनुष्य-के हृदयसे उत्पन्न कहा गया है । सभी देव इसी प्रकार यज्ञके द्वारा उत्पन्न होते और बढ़ते हैं तथा अपनी मानवी क्रियासे अपने दिव्य देह धारण करते हैं । जगत्के आनंदकी सुरारूप सोम मनमेंसे, जो उसे पवित्र करनेवाली एक ''प्रकाशमय एवं विस्तीर्ण'' छलनी है, वेगपूर्वक गुजरता हुआ, वहाँ दस बहिनोंसे शोधित होकर देवोंको जन्म देता हुआ स्रवित होता है ।
परन्तु इन आंतरिक शक्तियोंका स्वभाव सदा ही दिव्य होता है और इसलिए इनकी प्रवृत्ति ज्योति, अमरता तथा अनंतताकी ओर ऊपर जाने-की होती है । वे ''अनंतके पुत्र'' है, अपने संकल्प और क्रियामें एकमय, पवित्र, परिपूत धाराओंवाले, कुटिलतासे मुक्त, निर्दोष और अपनी सत्तामें अक्षत । विशाल, गंभीर, अपराजित, विजयशील, अंतर्दृष्टिके अनेक करणोंसे संपन्न वे हमारे अन्दर कुटिल वस्तुओं और पूर्ण वस्तुओंको देखते हैं । सब कुछ इन राजाओंके निकट है, यंहाँ तक कि वे वस्तुएँ भी जो सर्वोच्च हैं । अनंतके पुत्र होते हुए वे जगत्की गतिमें निवास करते हैं और उसे आश्रय देते हैं । वे देवता होनेके कारण उस सबके संरक्षक हैं जो विश्वके रूपमें प्रकट होता है; दूरगामी विचारसे युक्त और सत्यसे परिपूर्ण होते हुए वे बल-वीर्यकी रक्षा करते हैं (ऋ.11.27.2,3,4)1 । वे विश्वके, मानवके और विश्वकी सब प्रजाओंके राजा है (नृपति, विश्पति), आत्मशासक, विश्व-शासक (स्वराट्, सम्राट्) हैं, वें उन दस्युओंकी तरह शासक नहीं हैं जो असत्य और द्वैधभावमें रहनेका यत्न करते हैं, परन्तु इसलिए शासक कहलाते हैं कि वे सत्यके राजा है । क्योंकि उनकी माता है अदिति ''जिसमें कोई द्वैधभाव नहीं है'', ''ज्योतिर्मय अखंड अदिति जो प्रकाशमय लोकके दिव्य-धामको धारण करती है ।'' और उसके पुत्र ''सदा जागते हुए उसके साथ दृढ़तासे चिपके रहते हैं ।'' वे अपनी सत्तामें, अपने संकल्प, विचार, आनंद, क्रिया और गतिमें ''अत्यंत ऋजु'' हैं, ''वे सत्यके विचारक हैं जिनकी प्रकृति- ___________ 1. इमं स्तोमं सक्रतवो मे अद्य मित्रो अर्यमा वरुणो जुषन्त । आदित्यास: शुचयो धारपूता अवृजिना अनवद्या अरिष्टा: ।। त आदित्यास उरवो गभीरा अदब्धासो दिप्सन्तो भर्यक्षा: । अन्त: पश्यन्ति वजिनोत साधु सर्व राजभ्य: परमा चिदन्ति ।। धारयन्त आदित्यासो जगत् स्था देवा विश्वस्य भुवनस्य गोपा: । दीर्घाधियो रक्षमाणा असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि ।। ऋ. 11.27.2,3,4 १५० का विधान सत्यका विधान है ।'' ''वे सत्यके द्रष्टा और श्रोता हैं ।'' वे ''सत्यके सारथि हैं, जिनका आसन उसके प्रासादोंमें हैं, वे पवित्र विवेकवाले और अजेय हैं, विशालदृष्टि-संपन्न नर है ।'' ''वे अमर हैं जो सत्यको जानते हैं ।'' इस प्रकार असत्य और कुटिलतासे मुक्त ये आंतरिक दिव्य सत्ताएँ हमारे अन्दर अपने स्वाभाविक स्तर, धाम, भूमिका और लोक तक उठ जाती हैं । ''द्विविध जन्मोंवाले ये देवता अपनी सत्तामें सच्चे हैं और सत्यपर अधिकार रखते हैं, प्रकाशमें बहुत विशाल और एकीभूत हैं और हैं इसके प्रकाशमय लोकके स्वामी ।''
इस ऊर्ध्वोन्मुख गतिमें वे अशुभ और अज्ञानको छिन्न-भिन्न करके हमसे दूर कर देते हैं । ये वे हैं ''जो पार होकर निष्पापता और अविभक्त सत्ता-में पहुँच जाते हैं'' । इसी लिए ये हैं ''वे देव जो. उद्धार करते हैं'' । शत्रु, आक्रामक किंवा अनिष्टकर्ताके लिए उनका ज्ञान मानो दूर-दूर तक फैले हुए जाल बन जाता है, क्योंकि उसके लिये प्रकाश अंधताका कारण होता है, शुभकी दिव्य गति अशुभका अवसर और मार्गका रोड़ा । परन्तु आर्य ऋषि-की आत्मा रथके साथ वेगसे दौड़ती हुई घोड़ीकी तरह इन संकटोंसे पार हो जाती हैं । देवोंके नेतृत्वमें आर्य ऋषि बुराईके अन्दर होनेवाले सब प्रकार-के स्खलनोंसे ऐसे बच जाता है जैसे अनेकों रवोह-खड्डोंसे । अदिति, मित्र और वरुणकी विशाल एकता, पवित्रता और समस्वरताके विरुद्ध उसने जो पाप किया हो उसे ये देव क्षमा कर देते हैं ताकि वह विशाल तथा ''अभय ज्योति'' का रसास्वादंन करनेकी आशा कर सके और लंबी रात्रियाँ उसपर न आवें । वैदिक देव निरी भौतिक प्रकृति-शक्तियाँ ही नहीं हैं अपितु जगत्की सब वस्तुओंके पीछे और अन्दर विद्यमान चैत्य सचेतन शक्तियाँ हैं-यह बात उनके वैश्व स्वरूपमें और पाप व असत्यसे हमें इस प्रकार छुड़ानेमें जो संबंध है उससे पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि तुम वे हो जो अपने ज्ञानात्मक मनकी शक्तिसे जगत्पर शासन करते हों, चर और अचर सभी भूतोंके अन्दर स्थित विचारक हो, इसलिये हे देवो ! तुम हमें, जो कर्म हमने किया है और जो नहीं किया है उसके पापसे पार करके आनंदकी ओर ले जाओ । (ऋ. X.63.8)1
पथ और यात्राका रूपक वेदमें सदा देखनेमें आता है । बह पथ: है ___________ 1. य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तव: । ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवास: पिपुता स्वस्तये ।। ऋ. X.63.8 151 १५१ सत्यका पथ, जिसपर हम दिव्य नेतृत्वके द्वारा आगे ले जाये जाते हैं । हे अनन्तके पुत्रो ! हमारे लिए निर्भय शान्ति संपादित करो, हमारे लिए आनन्दके सुगम सन्मार्ग बनाओ (ऋ. X.63.7)1 ।
''तुम्हारा पथ सुगम है हे अर्यमा, हे मित्र, वह पथ है निष्कंटक और पूर्ण, हे वरुण'' (ऋ. 11.27.6)2 ।
''जिन्हें अनंतताके पुत्र अपने उत्तम मार्गदर्शनोंके द्वारा आगे ले जाते हैं, वे सब पाप और बुराईसे पार होकर आनंदमें पहुँच जाते हैं'' (ऋ. X.63.13)3 । सदा ही वह लक्ष्य होता है परम कल्याण, विशाल आनंद और शान्ति, अखंड ज्योति, बृहत् सत्य और अमरता । ''तुम हे देवो ! विरोधी (विभाजक) शक्तिसे हमें दूर रखो, हमें आनंद-प्राप्तिके लिये व्यापक शान्ति प्रदान करो'' (ऋ. X.63.12)4 । ''अनंतताके पुत्र हमें अक्षय प्रकाश देते हैं ।'' ''हमारे यज्ञ-संबन्धी ज्ञानसे सम्पन्न मनके अधिपतियो ! प्रकाशका सर्जन करो ।'' ''तुम्हारा जो बढ़ता हुआ जन्म है, जो, हे अर्यमा, भयके इस जगत्में भी परम आनन्दका सर्जन करता है, उसे हम आज ही जानना चाहते हैं, हे अनन्तके पुत्रो ! '' क्योंकि जिसका सर्जन किया जाता है वह है ''अभय ज्योति'' जहाँ मृत्यु, पाप, ताप, अज्ञानका कोई संकट नहीं--वह है वस्तुओंके अन्दर स्थित, अखंड, अनन्त और अमर, आनन्दोल्लसित परम आत्माकी ज्योति । क्योंकि ''ये अमरताके आनन्दोल्लसित स्वामी हैं, यही सर्वव्यापी अर्यमा, मित्र और वरुण ।''
तो भी स्वर्के अर्थात् दिव्य सत्यके लोकके रूपकमें ही लक्ष्य ठोस रूपमें चित्रित हुआ है । अभीप्सा यह की गई है ''आओ उस ज्योतिमें पहुँचे जो स्वर्लोककी है, उस ज्योतिमें जिसे कोई खंड-खंड नहीं कर सकता'' । स्वर् है मित्र, वरुण और अर्यमाका महान्, अखंडनीय जन्म-धाम जो आत्माके प्रकाशमय द्युलोकोंमें निहित है । क्योंकि वे सर्व-शासक राजा पूर्ण रूपसे वर्धित होते हैं और उनमें कोई कुटिलता नहीं है, अतः वे द्युलोकमें हमारे वास-धामको धारण करते है । वह है त्रिविध लोक जिसमें मनुष्यकी उन्नति चेतन-सत्ता तीन दिव्य तत्वोंको अर्थात् उसकी अनंत सत्ता, उसकी अनंत ____________ 1. ता आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये । ऋ. X.63.7 2. सुगो हि वो अर्यमन् मित्र पन्था अनृक्षरो वरुण साधुरस्ति । ऋ. 11.27.6 3. यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये ।। ऋ. X.63.13 4. आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु ण: शर्म यच्छता स्वस्तये ।। ऋ. X.63.12 १५२ चेतन-शक्ति और उसके अनंत आनंद1को प्रतिबिम्बित करती है । ''वे अपने अंदर ज्ञानमें तीन पृथिवियों, तीन द्युलोकोंको, इन देवोंके तीन कार्य-व्यापारोंको धारण करते हैं । हे अनंतके पुत्रो ! तुम्हारी वह विशालता सत्यसे महान् है, हे अर्यमन् ! हे मित्र ! हे वरुण ! वह विशालता महान् और रमणीय है । वे प्रकाशके तीन स्वर्गिक लोकोंको धारण करते हैं, स्वर्णसम भास्वर वे देव जो स्वयं पवित्र हैं और जिनकी धाराएँ पवित्र हैं । कभी न सोनेवाले अजेय वे देव पलक नहीं झपकाते, अपनी विशालता उस मर्त्यके प्रति प्रकट करते हैं जो सरल है'' (ऋ. 2.27.8.9)2 । सबको पवित्र करनेवाली ये धाराएँ उस वृष्टि और प्रचुरताकी धाराएँ हैं, सत्यके द्युलोककी नदियाँ हैं । ''वे ज्योतिके रथमें बैठे हैं, शानमें शक्तिशाली, निष्पाप; परम कल्याणके लिए वे द्युलोककी वर्षा और प्रचुरताका परिधान पहने हुए है'' (ऋ. 10.63.4)3 । उस प्रचुरताकी वर्षाके द्वारा वे हमारी आत्माओंको उसके स्रोत तक आरोहण करनेके लिए तैयार करते हैं, वह स्रोत है एक उच्चतर समुद्र जिससे ज्योतिर्मय धाराएँ अवतरित होती है ।
हम देखेंगे कि सब-देवों (विश्वेदेवा:) के प्रति तथा अनंत माताके पुत्रोंके प्रति सम्बोधित सूक्तोंमें इस महान् त्रयी--वरुण, मित्र और अर्यमाका निरूपण कितने विस्तारसे किया गया है । इस त्रयीका शिखरभूत चौथा देव है भग । इसके साथ वे तीनों पूर्ण सत्य और अनंतताके पुंज और चरम शिखर के प्रति ऋषियोंकी चरम अभीप्सामें उनके विचारपर छाये रहते हैं । उनकी इस प्रधानताका कारण है उनका विशिष्ट स्वभाव और व्यापार, जों निस्संदेह प्रायः किसी बड़ी भारी प्रमुखताके साथ तो नहीं प्रकट होते किन्तु उनके साँझे कार्य, उनकी सयुक्त प्रकाठामय प्रकृति, उनकी निर्विशेष उपलब्धिकी पृष्ठभूमिके रूपमें हमारे सामने आते हैं । क्योंकि उनके पास एक ज्योति है, एक कार्य है, वे हमारे अंदर एक अखंड सत्यको पूर्ण बनाते है; हमारे सहमति देनेवाले विश्वात्मभाव4में सब देवोंका यह ____________ 1. त्रिधातु । 2. तिस्रो भमीर्धारयन् त्रीँरुत द्यून् त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् । ऋतेनादित्या महिए वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ।। त्री रोचना दिव्या धारयन्त हिरण्यया: शुचयो धारपूता: । अस्वप्नजो अनिमिषा अदब्धा उरुशंसा ऋजवे मर्त्याय ।। ऋ. 11.27.8-9 3. नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बहद्देवासो अमतत्वमानशुः । ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वंसते स्वस्तये ।। ऋ. X.63.4 4. वश्वदेव्यम् १५३ ऐक्य ही इन आदित्य-सूक्तोंमें वैदिक विचारका उद्देश्य है । तो भी यह ऐक्य उनकी शक्तियोंके सम्मिलनसे साधित होता है और इसलिए इसमें उनमेंसे प्रत्येकका निजी स्वभाव और व्यापार होता है । इन चारोंका सम्मिलित स्वभाव और व्यापार है समग्र दिव्यता या भगवत्ताको उसके चार सारभूत तत्वोंकी स्वाभाविक परस्पर-क्रियाके द्वारा सर्वांगीण रूपमें निर्मित करना । भगवान् सर्वस्पर्शी, अनंत और शुद्ध सत्ता है । वरुण हमारे पास दिव्य आत्माका अनन्त सागरसम विस्तार और उसकी आकाशीय तात्त्विक पवित्रता लाता है । भगवान् निस्सीम चेतना है जो ज्ञानमें पूर्ण और पवित्र है और इसलिए वस्तुओंके अपने अवलोकन और विवेचनमें प्रकाशमय ढंगसे यथार्थ, उनके विधान और स्वभावको समस्वर करनेमें पूर्णत: सामंजस्यमय और सुखमय है । मित्र हमारे लिए इस प्रकाश और सामंजस्यको, इस यथार्थ विवेक और परस्पर-सम्बन्ध और मैत्रीपूर्ण सुसंवादको लाता है, साथ ही वह मुक्तात्माके उन सुखद विधानोंको भी लाता है जिनके अनुसार वह अपने समस्त समृद्ध विचारमें, अपने उज्ज्वल कार्योमें और सहस्रविध हर्षोपभोगमें अपने साथ और परम सत्यके साथ समरस होता है । भगवान् अपनी सत्तामे शुद्ध और पूर्ण शक्ति है और हमारे अंदर वस्तुओंके मूल स्रोत और सत्यकी ओर जानेकी एक ऊर्ध्वमुख प्रवृत्ति है । अर्यमा हमारे पास सर्व-समर्थ बलको और पूर्ण-मार्गदर्शन-युक्त, सुखमय, आंतरिक अभ्युत्थानको लाता है । भगवान् एक ऐसा पवित्र निर्भ्रात, सर्वस्पर्शी, अक्षुब्ध आनंदोल्लास है जो अपनी अनंत सत्ताका उपभोग करता है और उस सबका भीं समान रूपसे उपभोग करता है जिसका वह अपने अंदर सर्जन करता है । भग हमें मुक्त आत्माके उस आनन्दातिरेकको और आत्माके अपने ऊपर और जगत्के ऊपर स्वतंत्र और अच्युत स्वामित्वको भी राजकीय ढंगसे प्रदान करता है ।
राजाओंका यह चतुष्टय वस्तुत: सच्चिदानंद, मत् चित् और आनंदकी परवर्ती सारभूत त्रयी है जिसमें आत्म-संविद् और आत्म-शक्ति, अर्थात् चित् और तपस् चेतनाकी दो अवस्थाएँ गिने जाते हैं । परंतु इस चतुष्टयको यहाँ इसकी वैश्व अवस्थाओं और वैश्व पर्यायोंके रूपमें परिणत कर दिया गया है । राजा वरुणका आधार है सत्की सर्व-व्यापी पवित्रतामें; देवोंके प्रियतम, आनंदमय और शक्तिशाली मित्रका चित्के सर्व-एकीकारक प्रकाशमें, अनेक रथोंवाले अर्यमाका गति और तपकी क्रिया और सर्व-दर्शिनी शक्तिमें, भगका आनंदके सर्वालिङ्गी हर्षमें । तथापि ये सब चीजें चरितार्थ देवत्वमें एकरूप हो जाती है, क्योंकि त्रयीका प्रत्येक तत्त्व अपने आपमें दूसरोंको अन्तर्निहित १५४ रखता है और उनमेंसे कोई भी दूसरोंसे पृथक् रूपमें नहीं रह सकता, इस लिए चारोंमेंसे प्रत्येक अपने सारभूत गुणकी शक्तिसे अपने भाइयोंकी प्रत्येक सर्वसामान्य विशेषताको भी धारण करता है । इसी कारण यदि हम वेदको उतनी सावधानीसे न पढ़े जितनी सावधानीसे यह लिखा गया था, तो हम इसके भेद-प्रभेदोंको खो बैठेंगे और इन प्रकाशमय राजाओंके अविभेद्य सर्व-साधारण व्यापारोंको ही देखेंगे, क्योंकि निस्संदेह सूक्तोंमें आद्योपान्त पाई जानेवाली सब देवोंकी ''भिन्नतामें एकता'' मनोवैज्ञानिक सत्यकी सूक्ष्मताओंसे अपरिचित मनके लिए इस बातको कठिन बना देती है कि वह देवताओंमें सर्वसामान्य या परस्पर-परिवर्तनीय गुणोंके अस्त-व्यस्त पुंजके सिवाय और कुछ देखे । ये भेद-प्रभेद वहाँ है ही और इनका उतना ही बड़ा बल और महत्त्व है जितना कि यूनानी और मिस्री प्रतीकवादमें । प्रत्येक देव अपने अंदर अन्य सबको धारण किये है, परंतु उसके अपने विशिष्ट व्यापारमें उसका अपनापन तब भी बना रहता है ।
इन चारों देवोंके बीच भेदका यह स्वरूप वेदमें उनकी घटती-बढ़ती प्रधानताकी व्याख्या कर देता है । वरुण सहज ही इन सबमें प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अनंत सत्ताका साक्षात्कार वैदिक पूर्णताका आधार है । दिव्य सत्ताकी विशालता एवं पवित्रता जब एक बार प्राप्त हों जाती है तब शेष सब उसमें अन्तर्निहित ऐश्वर्य, सामर्थ्य और गुणके रूपमे अनिवार्य रूपसे प्राप्त हो जाता है । मित्रकी स्तुति वरुणके साथ संयुक्त रूपमें या फिर दूसरे देवोंके नाम और आकारके रूपमें,--अधिकतर वैश्व कर्मकर्ता अग्निके नाम और आकारके रूपमें,--की गई है, इनके बिना तो कदाचित् ही । उस संयुक्त स्तुतिमें वे देव अपनी क्रियामें सामंजस्य और प्रकाशतक पहुँचते हुए अपने अंदर दिव्य मित्रको प्रकट कर देते हैं । प्रकाश-मय राजाओंके सूक्तोंमेंसे अधिकतर मित्रावरुणकी युगल-शक्तिके प्रति सम्बोधित हैं । कुछ सूक्त पृथक् रूपसे वरुणके प्रति या वरुण-इन्द्रके प्रति, एक मित्रके प्रति, दो या तीन भगके प्रति सम्बोधित किये गये हैं, अर्यमाके प्रति एक भी नहीं । क्योंकि अनंत विशालता और पवित्रता स्थापित हो जानेपर, उनके आधारपर और उनकी नींवपर, हमारी सत्ताके आध्यात्मिक स्तरसे लेकर अन्नमय स्तरपर्यन्त सभी विभिन्न स्तरोंके परस्पर-सम्बद्ध नियमोंसे, देवोंकी क्रियाओंके द्वारा प्रकाशमय सामंजस्य प्राप्त करना होगा; और यही है मित्र और वरुणका द्वन्द्व । अर्यमाकी शक्तिको कदाचित् ही एक स्वतंत्र तत्त्वके रूपमें देखा जाता है; वह तो एक ऐसा तत्त्व है जैसा कि विश्वमे विद्यमान शक्ति,--विश्वगत शक्ति सत्ताकी केवल एक अभिल्यक्ति १५५ एवं गति है या उसका एक महत्त्वपूर्ण क्रियाशील रूपमात्र है, वह चेतना वा ज्ञानका, वस्तुओंके अंतर्निहित सत्यका क्रियान्वित एवं उन्मुक्त होना मात्र है, जिसके द्वारा वे (चेतना वा ज्ञान आदि) शक्तिके सार-तत्त्वके रूपमें और प्रभावकारी आकारके रूपमें परिणत हो जाते हैं, अथवा यह (विश्वगत शक्ति) एक ऐसी स्व-उपलब्धिकारी और स्वायत्तकारी गतिका एक प्रभाव- शाली रूपमात्र है जिसके द्वारा सत् और चित् अपने-आपको आनंदके रूपमें चरितार्थ कर लेते हैं । इसलिए अर्यमाका आवाहन सदा ही अदिति या वरुण या मित्रके साथ संयुक्त रूपमें किया जाता है अथवा महान् सिद्धि-कारक त्रयीमें या राजाओंके चरितार्थ चतुष्टयके रूपमें या सब-देवों (विश्वे-देवा:) और आदित्योंके सर्वसामान्य आवाहनमें ।
दूसरी ओर भग हमारी सत्ताके छिपे हुए दिव्य सत्यकी उपलब्धिकी ओर हमारी गतिका चरम शिखर है; क्योंकि उस सत्यका सार है परम आनन्द । भग साक्षात् सविता ही हैं; सर्व-उपभोक्ता भग एक ऐसा स्रष्टा-सविता है जो अपनी सृष्टिके दिव्य उद्देश्यमें कृतार्थ हो गया है । इसलिए वह साधन-की अपेक्षा कहीं अधिक एक साधित परिणाम है या फिर सबसे अन्तिम साधन है, हमारे आध्यात्मिक ऐश्वर्यके दाताकी अपेक्षा कहीं अधिक उसका स्वामी है ।
सब-देवों (विश्वेदेवा:) के प्रति ऋषि वामदेवका सूक्त विशद स्पष्टताके साथ उस उच्च अभीप्सामय आशाको दर्शाता हैं जिसके प्रति कृपालु होनेके लिए और जिसे सुखमय सिद्धि तक पहुँचानेके लिए इन वैदिक देवताओंका आह्वान किया जाता था ।
''तुममेंसे कौन हमारा उद्धारक है ? कौन हमारा त्राता है ? हे पृथ्वी और द्यौ ! द्धैध-भावसे मुक्त तुम हमारा उद्धार करो । हे मित्र ! हे वरुण ! इस मर्त्यभावसे हमें बचाओ जो हमारे मुकाबलेमें अतीव प्रबल है ! हे देवो ! तुममेंसे कौन हमारे लिए यज्ञकी यात्रामें परम कल्याणको दृढ़तया सम्पुष्ट करता है ? जो हमारे उच्च मूल धामोंको प्रदीप्त करते हैं, ज्ञानमें निस्सीम जो देव हमारे अंधकारको दूर करते हुएं उदित होते हैं, वे अविनश्वर सर्व-नियंता देव ही हमारे लिए उन सबका विधान करते हैं । सत्यके चिन्तक वे सिद्धिकर्ता ज्योतिमें देदीप्यमान होते हैं । प्रकाशप्रद शब्दोंके द्वारा मैं अदितिरूप बहती हुई नदीको जो दिव्य आनंदमय हैं, अपना साथी बनानेके लिए खोजता हूँ । हे अजेय निशा और उषा ! कृपा करके ऐसा अवश्य करो कि दोनों दिन (दिनका प्रकाशमय और अंधकारमय रूप) हमारी पूर्णतया रक्षा करें । अर्यमा और वरुण विवेकपूर्वक पथ दर्शाते हैं, और प्रेरणाका १५६ अधिपति अग्नि विवेकपूर्वक आनंदमय लक्ष्यका मार्ग दिखलाता है । ह इन्द्र और विष्णु ! स्तुति किये हुए तुम हमारे लिए पूर्णतया उस शान्तिका विस्तार करो जिसमें सब शक्तियाँ और महती सुरक्षा विद्यमान हैं । पर्वतके, मरुत्के और हमारे दिव्य त्राता भगके संवर्धनोंका मै सहर्ष वरण करता हूँ । सब पदार्थोंका स्वामी जगत्-सम्बन्धी पापसे हमारी रक्षा करे और मित्र उसके विरुद्ध किये जानेवाले पापसे हमें बहुत दूर ररवे । अब स्तोता अभीष्ट वस्तुओंके द्वारा जिन्हें हमें प्राप्त करना है, अहिर्बुध्न्य (आधारस्थित सर्प) के साथ द्यौ औ और पृथिवी--इन देवियोंकी स्तुति करे, मानो अपने विशाल संचरणके द्वारा उस समुद्रको अधिकृत करनेके लिए उन्होंने उन (छिपी हुई) नदियोंको रवोल दिया हो जो जाज्वल्यमान ज्योतिसे मुखरित हैं । अदिति देवी देवोंके साथ हमारी रक्षा करे, दिव्य परित्राता सदा जागरूक रहता हुआ निरंतर हमारा उद्धार करे । मित्र और वरुणके मूल धामके और अग्निके उच्च स्तरके नियमोंका हम कभी उल्लंघन न करें । अग्नि ऐश्वर्य- सम्पदाओंके उस विशाल सारतत्त्वका और सर्वांगपूर्ण उपभोगका स्वामी है । वह उन प्रचुर ऐश्वर्योंको हमपर मुक्त हस्तसे लुटाता है । हे उषा ! हे सत्यकी वाणी! बल और ऐश्वर्यकी सम्राज्ञी ! हमारे पास बहुतसे अभीष्ट वर ला, तू जिसमे उनका समस्त वैभव है । इसी लक्ष्यकी ओर सविता, भग, वरुण, मित्र, अर्यमा,. इन्द्र हमारे परम आनंदके ऐश्वर्योंके साथ हमारे लिए सम्यक्तया गति करें' ' (ऋ. 1V.55)1 । ______________
को वस्त्राता बसव: को वरूता द्यावाभूमी अदिते त्रासीथां नः । सहीयसो वरुण मित्र मर्तात् को वोदुऽरे वरिवो धाति देवा: ।।1।। प्र दे धामानि पूर्व्याण्यर्चान् वि यदुच्छान् वियोतारो अमूरा: । विधातारो वि ते दधुरजस्रा ऋतधीतयो रुरुचन्त दस्मा: ।।2।। प्र पस्त्यामीदितिं सिन्धुमर्कै: स्वस्तिमीळे सख्याय देवीम् । उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करतामदब्धे ।।3।। व्यर्यमा वरुणश्चेति पन्थामिषस्पति: सुवितं गातुमग्निः । इन्द्रात्रिण्णू नृवदु षु स्तवाना शर्म नो यन्तममवद् वरूथम् ।।4।। आ पर्वतस्य मरुतामवांसि देवस्य त्रातुरव्रि भगस्य । पात् पतिर्जन्यादंहसो नो मित्रो मित्रियादुत न उरुष्येत् ।।5।। नू रोदसी अहिना बुध्न्ये स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टै: । समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप व्रन् ।।6।। देवैर्नो देव्यदितिर्नि पातु देवस्त्राता त्रायतामप्रयुच्छन् । नहि मित्रस्य वरुणस्य धासिमर्हामसि प्रमिय सान्वग्ने: ।।7।। १५७ |